Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


सोने की
यद्यपि बिन्दो की उमर की रायसाहव की लड़कियां थीं। फिर भी बिन्दो उनकी कृदृष्टि से बची न रही। उसके इस समय के हार्दिक भाव रायसाहब अच्छी तरह ताड़ गए और वार करने का यही उपयुक्त समय देखकर वे हंसते हुए बोले, बिन्दो, यह कंठी तुम्हें बहुत पसंद आई है, पहिनोगी?
एक प्रकार की अव्यक्त आशा से बिंदो का चेहरा ख़िल उठा; पर यह प्रसन्‍नता क्षणिक थी। वह गंभीर होकर बोली, नहीं, मैं न पहिनूँगी। गहने -गरीबों के लिए नहीं होते।
रायसाहब बोले, गहने तो गरीब-अमीर सभी के लिए होते हैं। फिर तुम्हारी तरह का गरीब तो इच्छा करते ही मनमाना गहना पा सकता है।
-सो कैसे? बिंदो ने पूछा, गहनों की इच्छा तो मुझे सदा से रही है; पर वे मुझे कभी नहीं मिले और न जीवन भर मिलेंगे, यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ।
रायसाहब धीरे-धीरे बिंदो की तरफ आते हुए बोले, जीवन भर की बात तो अलग रही बिंदो, यह कंठी तुम्हें इसी समय मिल सकती है; केवल तुम्हारी इच्छा करने भर की देर है। तुम्हारे ऊपर एक क्या, ऐसी लाखों कंठियाँ निछावर की जा सकती हैं। पर बिंदो यदि तुम मेरे मन को समझती!
रायसाहब के आरक्त चेहरे और हिंसक पशु की तरह आँखों को देखते हुए बिंदो सिहर उठी और दो कदम पीछे हटकर बोली, आप मुझे दवा दिलवा दें, मैं जाऊँ अम्मा अकेली है। उसने इस बात को इतने जोर-जोर से कहा जिससे अंदर आवाज पहुँच सके ।

वह शीघ्र ही दवा लेकर लौटी। उसने मन-ही-मन सोचा, अब मैं दवा लेने न जाऊँगी, रायसाहब की नीयत ठिकाने नहीं है। मैंने समझा था कि वह बेटी समझकर मुझे कंठी देना चाहते हैं; परंतु वे तो सतीत्व के मोल उसे बेचना चाहते हैं। चूल्हे में जाए ऐसी कंठी! मुझे न चाहिए विधाता! सतीत्व कंठी से कई गुना ज्यादा कीमती है। किंतु इतने पर भी उस कंठी को वह भूल न सकी। रह-रहकर कंठी उसकी आँखों के आगे झूलने लगी। फिर उसने एक युक्ति सोची। यह हो सकता है कि जैसे वह मुझे छलना चाहते हैं मैं भी उन्हें छल लूँ। उनसे कंठी ले लूँ फिर बचकर भाग जाऊँ। ऐसे अनेक तरह के संकल्प-विकल्प करती हुई बिंदो सो गई। दूसरे दिन दोपहर को बिंदो को फिर दवा लेने जाना पड़ा । पहुँचकर उसने देखा कि रायसाहब के मसनद के पास उसी तरह की चार कंठियाँ पड़ी हैं। बिंदो के पहुँचते ही रायसाहब ने उसे बैठने के लिए कहा। बिंदो बैठ गई।

कल उसने जितने संकल्प किए थे उसे इस समय याद न रहे। कंठियों की चकाचौंध के सामने बिंदो को सब-कुछ भूल गया। बिंदो के सामने ही रायसाहब ने एक कंठी को तौलाकर उसकी कीमत ढाई सौ रुपए सुनार को देकर बिदा कर दिया। बिंदो चकित दृष्टि से उस कंठी की ओर, और कभी उन रुपयों की तरफ देखती थी। व्यापारी के जाते ही जैसे उसकी तंद्रा टूटी । वह उठकर खड़ी हो गई; बोली, दवा दिलवा दीजिए, मैं जाऊँ, देर हो रही है।

-अभी कहाँ की देरी होने लगी। कहते-कहते रायसाहब ने एक कंठी बिंदो के गले में पहिना दी और उसे जबरन पकड़कर एक बड़े शीशे के सम्मुख खड़ा कर दिया; फिर उसकी तरफ सतृष्ण नेत्रों से देखते हुए बोले, अपनी सुंदरता देखो, वहाँ बिंदो है या कोई दूसरी? बिंदो मंत्रमुग्ध-सी देखती रह गई। वह अभी रायसाहव की किसी बात का उत्तर भी न दे पाई थी कि इसी समय उन्होंने अपने बड़े-बड़े दाँतों वाला मुँह बिंदो के होंठों पर धर दिया। बिंदो को जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो। वह घबराई किंतु कुछ वश न चला। इस प्रकार कुछ तो कंठी के लालच में और कुछ रायसाहब की जबरदस्ती के कारण उस दिन दोपहर के सन्‍नाटे में अभागी बिंदो अपने को खो बैठी। बेचारी को उस कंठी की बहुत बड़ी कीमत देनी पड़ी। परंतु उसके बाद फिर रायसाहब के घर दवा लेने कभी न गई।

उसके कुछ ही दिन बाद बिंदो ससुराल चली गई और उस कंठी को भी वह सबसे छिपाकर अपने साथ ले गई। ससुराल में लोगों के पूछने पर उसने यही बतलाया कि यह कंठी उसकी माँ ने उसे दी है।
किंतु बिंदो ने उसे कभी पहिना नहीं । पति के आग्रह करने पर जब कभी वह उसे, घंटे-आध घंटे के लिए पहनती थी तो ऐसा मालूम होता था, जैसे काला विषधर उसके गले से लिपटा हो। कंठी को देखते ही प्रसन्‍न होने के बदले वह सदा उदास हो जाती थी।

बिंदो के पति और जेठों में अनबन हो गई। भाई-भाई अलग हो गए। दूसरे भाई तो खेती करके खुशो-खुशी आराम से रहने लगे; किंतु जवाहर से खेती का काम नहीं होता था। जिसका परिणाम यह हुआ कि सब लोग तो चार पैसे कमाकर गहने-कपड़े की फिकर करने लगे। इधर जवाहर के घर फाके होने लगे। अभिमानी स्वभाव के कारण जवाहर अपनी विपत्ति भाइयों पर प्रकट न होने देता।

अब पहलवानी छूट गई, मलमल, तनजेब के कुरते मैले दिखने लगे, सिर में तेल भी कहाँ से मिलता, जब खाने के लिए घर में अन्न का दाना भी न रहता? बिंदो से पति का कष्ट देखा न गया और उसने एक दिन कंठी निकालकर पति को बेचने के लिए दे दी। जवाहर बड़ी प्रसन्‍नता से कंठी लेकर सराफे की ओर गया; पर थोड़ी देर बाद उसने लौटकर निराशा से कहा, यह तो मुलम्मे की है।

बिंदो यह सुनकर, सर थामकर बैठ गई, मानो उस पर वज्र गिर पड़ा ।

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